इब्नबतूता ने इसे कजारा कहा, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसे ‘चि: चि: तौ’ लिखा, अलबरूनी ने
इसे ‘जेजाहुति’ बताया तो चंदबरदाई की कविताओं में इसे ‘खजूरपुर’ कहा गया, एक समय तक
इसे ‘खजूरवाहक’ नाम से भी जाना गया लेकिन अब पूरी दुनिया इसे खजुराहो के नाम से जानती
है।
खजुराहो, प्रेम के अप्रतिम सौंदर्य का प्रतिक, आसक्ति से आस्था तक का दर्शन। भोग से योग का
मार्ग दिखाते देश के सर्वोत्कृष्ट मध्य कालीन स्मारक यहां मौजूद हैं। हृदय प्रदेश के एक छोटे से
कस्बे में ग्रेनाइट और बलुआ पत्थरों से निर्मित ये मंदिर हजार वर्षों से अपने मटियाले गुलाबी
और हल्के पीले रंग में उन सभी को मूक आमंत्रण दे रहे हैं, जिन्होंने कभी किसी तत्व से प्रेम
किया है। जो, प्रेम की तलाश में भटकते रहे हैं। लेकिन अप्रतिम सौंदर्य और कला के संगम इन
विशाल मंदिरों के प्रांगण में पहुंचते ही कुछ सवाल मन में कौंधने लगते हैं। एक अलग तरह का
कौतूहल पैदा होता है कि देवालयों पर रति दृश्यों और पशु मैथुन का क्या औचित्य ? आखिर
उपासना के पथ पर भोग-विलास का क्या अर्थ है ? भक्ति के साथ भोग का क्या मेल ? किंतु
मूर्ति शिल्प की उत्कृष्टता ये ज़रूर दिखाती है कि ये मैथुन मूर्तियां किसी तरह के पूर्वाग्रह या
कुंठा से उपजी हुई रचनाएं नहीं है।
इन प्रश्नों के उत्तर न तो मंदिर की दीवारों पर मिलते हैं और न किसी शिलालेख पर। हां इन
प्रश्नों के उत्तर को ढूंढते हुए कुछ धाराणाओं से परिचय ज़रूर होता है। पहली धारणा ये कि ‘उस
समय चूंकि छात्र ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुलों में ही रहते थे, इसलिए इन मूर्तियों के
जरिये उन्हें काम का ज्ञान दिया जाता था जो उन्हें गृहस्थ जीवन के लिए तैयार करता था’।
लेकिन प्रश्न ये कि फिर ये तमाम मिथुन मूर्तियां मंदिरों की बाहरी दीवारों पर ही क्यों ?, तो
फिर दूसरी धारणा ये कि, ‘लोगों को कामवासनाएं बाहर ही छोड़ देनी चाहिए क्योंकि ये प्रतिमाएं
भक्तों के संयम की परीक्षा का माध्यम हैं। जो इन काममग्न मूर्तियों के प्रभाव से मुक्त रह
पाएगा, वही मंदिर में अपने इष्ट देव के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करेगा’।
लेकिन बुंदेलखंड में इस संबंध में एक जनश्रुति भी है। कहते हैं एक बार राजपुरोहित हेमराज की
पुत्री हेमवती सरोवर में स्नान कर रही थी तो उसे देख आकाश में विचरण करते चंद्रदेव उस पर
आसक्त हो गए। दोनों के प्रणय प्रेम के परिणति से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। समाज के भय से
हमवती ने चंद्रवर्मन नाम के इस बालक का पालन-पोषण वन में करणावती नदी के तट पर ही
किया। बड़ा होकर चंद्रवर्मन एक प्रभावशाली राजा बना। उसने बड़े होकर चंदेल वंश की स्थापना
की। एक बार उसकी माता हेमवती ने उसे स्वप्न में दर्शन देकर, ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए
प्रेरित किया जो समाज को ये ज्ञान दे सके कि जीवन के दूसरे पहलुओं के समान कामेच्छा भी
एक अनिवार्य अंग है। ताकि इस इच्छा को पूर्ण करने वाला इंसान कभी पाप बोध से ग्रसित न हो।
ऐसे मंदिरों के निर्माण के लिए चंद्रवर्मन ने खजुराहो को चुना। जिनका निर्माण चंदेलवंश के आगे
के राजाओं ने भी जारी रखा।
एक मत यह भी है कि चंदेल राजाओं के काल में इस क्षेत्र में तांत्रिक समुदाय की वाममार्गी
शाखा का वर्चस्व था। जो योग और भोग दोनों को मोक्ष का साधन मानते थे। ये मूर्तियां उनके
क्रियाकलापों की ही देन हैं।
खजुराहो को यदि यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दिया है तो इसकी बड़ी वजह है इन
मंदिरों की स्थापत्य कला व शिल्प जो पूरे विश्व में अद्वितीय है। ये मंदिर शिल्प की दृष्टि से
बेजोड़ तो हैं ही, दूसरी तरफ इनपर स्त्री-पुरुष प्रेम की जो आकृतियां गढ़ी गई हैं, उसकी मिसाल
दुनिया में और कहीं नहीं मिलती। भारतीयों के लिए ये महानतम कलाकृति हजार साल पहले के
इतिहास है और इसी इतिहास को खंगालने के लिए भारत आने वाले ज्यादातर विदेशी पर्यटक
खजुराहो खींचे आते हैं।
खजुराहो की ख्याति विश्व भर में अपनी मिथुन मूर्तियों के लिए ही है। वे मूर्तियां जिन्होंने
वात्स्यायन को कामसूत्र लिखने की प्रेरणा दी। स्त्री व पुरुष की काममग्न मूर्तियों को इतने
विस्तृत तरीके से मंदिरों की भित्तियों पर उकेरना यकीनन उस दौर के सामाजिक जीवन का
प्रमाण है। ये मूर्तियां ये जताती है कि उस समय का समाज कितना कुंठा रहित था। जिसने
मनुष्य प्रेम को देवालयों में सजाने का साहस किया। ये मंदिर एक परिपक्व सभ्यता को
प्रतिबिंबित करते हैं। शिल्पकारों ने आस्था से आसक्ति तक जीवन के तमाम संवेगों को इन
मंदिरों की दीवारों पर उकेर डाला है। तभी तो यहां सौंदर्य, कलात्मकता और देवत्व का अनन्य
संगम देखने को मिलता है।
इन वैभवशाली मंदिरों के निर्माण में लगभग सौ साल लगे- सन 950 ईस्वी से लेकर 1050 ईस्वी
तक। उस समय कुल 85 मंदिरों का निर्माण चंदेल राजाओं ने कराया था। लेकिन 14 वीं शताब्दी
में चंदेलों के खजुराहो से गमन के साथ ही सृजन का एक समृद्ध दौर खत्म हो गया। करीब सौ
साल बाद मंदिरों का महत्व भी घटने लगा और धीरे-धीरे ये अतीत की धूल में ओझल हो गए
और समय की आंधी खजुराहो के दो-तिहाई मंदिरों को निगल गई। लेकिन बीसवीं सदी का आरंभ
इन मंदिरों के लिए एक नए सूर्योदय तरह हुआ। एक अंग्रेज इंजीनियर टीएस. बर्ट ने नए सिरे से
खजुराहो की खोज की। तब यहां एक छोटा सा गांव और केवल 22 मंदिर शेष थे। लेकिन इन
22 में भी पूरी तरह सलामत मंदिरों की संख्या आज और कम हो गई है।
खजुराहो गांव से इनकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार ये मंदिर अब पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी
मंदिर समूह के रूप में विभाजित हैं। खजुराहो के अधिकतर महत्वपूर्ण मंदिर पश्चिमी समूह में ही
हैं। आधुनिक खजुराहो इसी मंदिर समूह के सामने बसा है।
मंदिरों में बसी इष्ट देवताओं की प्रतिमाओं के अलावा मंदिरों के बाहरी दीवारों पर नारी सौंदर्य
और कामकला की मूर्तियां यहां सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। शिल्पकारों ने पाषाण पर हथौड़े-
छेनी का प्रयोग इतने सधे ढंग से किया है कि उनकी मंत्रमुग्ध होकर प्रशंसा किए बिना कोई
पर्यटक वापस जा ही नहीं सकता। नारी जीवन के अनेक प्रसंग यहां मौजूद हैं। कहीं वह वेणी गूंथ
रही है तो कहीं दर्पण में अपने सौंदर्य को निहार रही है, तो कहीं प्रेम पाती पढ़ रही है। हर प्रसंग
में उनकी भाव भंगिमा अर्थपूर्ण नजर आती है।
खजुराहो का मुख्य आकर्षण पश्चिमी समूह के मंदिरों में ही है। यहीं ज्यादातर मंदिर हैं- कंदारिया
महादेव, लक्ष्मण मंदिर, वराह मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, नंदी मंदिर, मतंगेश्वर
मंदिर। कंदारिया महादेव मंदिर खजुराहो का सबसे विशाल और विकसित शैली का मंदिर है। 117
फुट ऊंचा, लगभग इतना ही लंबा और 66 फुट चौड़ा यह मंदिर सप्तरथ शैली में बना है। इसके
चारों उप मंदिर सदियों पूर्व अपना अस्तित्व खो चुके थे। लेकिन फिर भी इसकी भव्यता में कोई
कमी नजर नहीं आती। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का निर्माण राजा विद्याधर ने
मोहम्मद गजनी को दूसरी बार परास्त करने के बाद 1065 ई. के आसपास करवाया था। पश्चिमी
समूह का ही चौसठ योगिनी मंदिर परिसर के बाहर थोड़ा अलग जाकर है। लेकिन इस मंदिर से
योगिनी की सारी मूर्तियां गायब हैं। ज्यादातर कालांतर में नष्ट हो गई तो बाकी को हटाकर
संग्रहालयों में रख दिया गया। पूर्वी समूह लगभग तीन किलोमीटर गांव से थोड़ा अंदर जाकर है।
यहां समकालीन हिंदू मंदिर तीन ही हैं- ब्रह्मा, वामन और जावरी। हिंदू मंदिरों में भी मिथुन
मूर्तियां उस भव्यता के साथ नहीं हैं, जैसी पश्चिमी समूह में हैं। मुख्य परिसर से पांच किलोमीटर
दूर दक्षिणी समूह है जिसमें दूल्हा देव और चतुर्भुज मंदिर हैं। ये मंदिर भी बाद के दौर में चंदेल
वंश के आखिरी राजाओं ने बनवाए। सभी मंदिरों की शैली, बनावट, शिल्प, मंडप, अनूठे हैं,
जिनके बारे में विस्तार से जानकारी यहां जाकर ली जा सकती है।
अपने स्वर्णकाल में खजुराहो जैन तीर्थ के रूप में भी विख्यात था। आज भी यहां चार जैन मंदिर
स्थित हैं। इनमें से घंटाई मंदिर आज खंडहर अवस्था में है। एक मंडप के रूप में दिखने वाले इस
मंदिर के स्तंभों पर घंटियों का सुंदर अलंकरण है। प्रवेश द्वार पर शासन देवी-देवताओं की
मनोहारी प्रतिमाएं हैं। जबकि गर्भगृह के द्वार पर शासन देवी चक्रेश्वरी की गरुड़ पर आरूढ़
प्रतिमा है। शेष तीनों जैन मंदिर कुछ दूर एक परिसर में स्थित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है
पार्श्वनाथ मंदिर। जो राजा धंगदेव के काल में एक वैभवशाली नगर श्रेष्ठी से बनवाया गया था।
इस मंदिर का भू-विन्यास कुछ विशिष्ट है। यहां मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीर्थकर प्रतिमाएं
बनी हैं। गर्भगृह में पार्श्वनाथ जी की श्यामवर्ण प्रतिमा विराजमान है। यहीं बराबर में आदिनाथ
मंदिर है। इसकी शिखर संयोजना एकदम सादी है। यहां मूर्तियों की पंक्तियों में गंधर्व, किन्नर,
विद्याधर शासन देवी-देवता, यक्ष मिथुन व अप्सराएं शामिल हैं। इनमें आरसी से काजल लगाती
नायिका तथा शिशु पर वात्सल्य छलकाती माता को देख सैलानी मुग्ध हो जाते हैं। मंदिर के
गर्भगृह में आदिनाथ जी की प्रतिमा है। परिसर में स्थित शांतिनाथ मंदिर को प्राचीन मंदिर नहीं
कहा जा सकता। क्योंकि यह लगभग सौ वर्ष पुराना मंदिर है। यहां आज पूजा-अर्चना का नियम
है। मंदिर में मूलनायक सोलहवें तीर्थकर शांतिनाथ की बारह फुट ऊंची प्रतिमा तथा चित्र दर्शनीय
हैं।
इसके अलावा शिवसागर झील भी देखने योग्य स्थान हैं। खजुराहो के आसपास भी कुछ दर्शनीय
स्थल हैं। केन नदी के तट पर स्थित एनेह फॉल वहां से 19 किलोमीटर दूर है। काफी ऊंचाई से
गिरता यह झरना अनोखा प्राकृतिक दृश्य प्रस्तुत करता है। दूसरी ओर 7 किलोमीटर दूर बेनी
सागर झील एक सुंदर पिकनिक स्पॉट है। पन्ना मार्ग पर 34 किलोमीटर दूर पांडव जल प्रपात
भी पर्यटकों को आकर्षित करता है। यहां से आगे निकल जाएं तो पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में अनेक
वन्य प्राणियों को उनके वास्तविक परिवेश में स्वच्छंद विचरण करते देख सकते हैं।
खजुराहो खाने के शौकीनों के लिए भी किसी तीर्थस्थल से कम नहीं है। सड़क के किनारों पर
चाट की दुकानें तो मिल ही जाती हैं, यहां शाकाहारी मारवाड़ी भोजन के रेस्टोरेंट भी हैं लेकिन
इन सब से बढ़कर यहां चाइनीज, कांटिनेंटल, जापानी, कोरियन, इजरायली या इटालियन फूड भी
मिल जाता हैं। दरअसल खजुराहो के कई रेस्तराओं में विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए उनके
देश का भोजन परोसना शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्होंने पहले उस तरह का भोजन बनाना
सीखा और उन्हीं की भाषा में उन्हें लुभाते बोर्ड भी लगवा दिये। यहां दिन में ज्यादातर विदेशी
पर्यटकों को आप साइकिल पर घूमते देख सकते हैं । घूमने के लिए यहां साइकिल किराये पर
मिल जाती है।
इन मंदिरों के निर्माण के पीछे कारण और औचित्य चाहे कुछ भी रहा हो, यह तो निश्चित है कि
उस काल की संस्कृति में ऐसी कला का भी महत्वपूर्ण स्थान था।
वास्तव में अद्भुत हैं खजुराहो के ये कला तीर्थ। सर्वोत्तम मूर्तिकला, सुव्यवस्थित शिल्पकला और
उत्कृष्ट वास्तुकला का ये मुक्ताकाश सदियों तक कलाप्रेमियों और सौंदर्य उपासकों को आकर्षित
करता रहेगा। ये भी निश्चित है कि इतनी उत्कृष्ट मूर्तियों के रचनाकार कलाजीवी नहीं,
कलासाधक रहे होंगे। इन मंदिरों के सौंदर्य से किसी की आंखों में भी प्यार लौट आना स्वाभाविक
है। वास्तव में मूर्ति शिल्प के इस विपुल वैभव को एक बार में अपनी स्मृतियों में समेटना असंभव
है। यहां आने वाले पर्यटकों का मन सदैव खजुराहो के शिल्पकानन में भटकते रहता है।
कैसे जाएं खजुराहो-
मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो आगरा से 395 किलोमीटर, सतना से 117, झांसी
से 175 किलोमीटर, भोपाल से 350 किलोमीटर दूर है।
खजुराहो के लिए दिल्ली, आगरा व वाराणसी से सीधी विमान सेवा है। जिसमें अधिकतम 45
मिनट के समय में खजुराहो पहुंचा जा सकता है।
खजुराहो रेल मार्ग से जुड़ा हुआ नहीं है। दिल्ली या उत्तर भारत में अन्य जगहों से आने वालों के
लिए झांसी ज्यादा उपयुक्त स्टेशन है। जबकि मुंबई, कोलकाता या वाराणसी से आने वालों के
लिए सतना स्टेशन पर उतरना ठीक रहेगा। सतना, हरपालपुर, झांसी व महोबा से खजुराहो के
लिए लगातार बसें उपलब्ध हैं।