अयोध्या में श्रीराम मंदिर (Ram Mandir) के लिए देश ने पांच सदियों तक प्रतीक्षा की है. करीब 500 साल तक अयोध्या और सनातन धर्म के मानने वालों को भव्य मंदिर में रामलला के दर्शन से दूर रखा गया. अब 22 जनवरी को राम लला की प्राण प्रतिष्ठा होनी है. ऐसे में श्रीराम मंदिर का निर्माण अपनी पूरी रफ्तार से हो रहा है.nइस मंदिर को बनाने में परंपरागत प्राचीन शैली और संस्कृति का समावेश तो है ही, साथ ही नई तकनीक का भी इस्तेमाल हो रहा है. हर साल रामनवमी में श्रीराम की मूर्ति पर सूर्य की किरणों को पहुंचाने का जतन हो, मंदिर में लगे पत्थरों को जोड़ने की पद्धति हो या फिर भूकंप में भी अटल रहने वाली नींव हो, मंदिर के रास्ते में आ रही सभी बाधाओं को विज्ञान की मदद से दूर किया गया है. वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और कई एजेंसियों की टीम मिलकर ये तय कर रही है कि श्रीराम मंदिर दीर्घायु हो.nबता दें कि, मंदिर का पूरा परिसर 71 एकड़ का है. जबकि, रामलला का मंदिर 8 एकड़ में बन रहा है. मंदिर को इस तरीके से बनाया जा रहा है कि वो कम से कम 1 हजार साल तक खड़ा रहे. श्रीराम मंदिर की बुनियाद को सॉलिड बनाने के लिए देश में पहली बार एक असंभव दिखने वाले काम को अंजाम दिया गया. मंदिर के लिए 400 फुट लंबी, 300 फुट चौड़ी नींव बनाई गई. जमीन में 14 मीटर की गहराई में चट्टान ढाली गई और यही चट्टान मंदिर की बुनियाद बन गई है. यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जिसपर बना मंदिर हजारों साल तक अटल और सुरक्षित रहेगा. दावा है कि अगले 1000 साल से ज्यादा वक्त तक श्रीराम मंदिर ऐसी ही भव्यता के साथ अपनी आभा बिखेरता रहेगा.nआधुनिक और प्राचीन दोनों तकनीक का हुआ इस्तेमालnमंदिर आधुनिक दौर के हिसाब से बन रहा है लेकिन इसमें प्राचीन सभ्यता और पुरातन तकनीक की मदद ली गई है. रामलला जिस जगह विराजमान होंगे वहां रामनवमी के दिन सूर्य की रोशनी से अभिषेक हो इसके लिए भी काम किया गया है. श्रीराम मंदिर का गर्भगृह एक और वजह से बेहद खास और अद्वितीय होगा. मंदिर के अंदर गर्भगृह को इस तरह तैयार किया गया है कि हर साल रामनवमी के दिन दोपहर ठीक बारह बजे सूर्य की किरणें गर्भगृह में विराजमान श्रीराम की मूर्ति पर पड़ेंगी. इसके लिए बहुत जतन करके एक उपकरण मंदिर के शिखर में लगाया जाएगा और उसके जरिए सूर्य की किरणें रिफ्लेक्ट होकर रामलला के ललाट तक पहुंचेंगी.n90 के दशक से शुरू हुआ था पत्थर तराशने का कामnरामलला के मस्तक पर सूर्य की किरणें पड़ें ये सुझाव प्रधानमंत्री मोदी ने दिया है. जिसके बाद इस पर काम शुरू हुआ और CSIR रुड़की की टीम ने डिजाइन तैयार किया. इंजीनियरिंग और विज्ञान के समावेश के साथ राम मंदिर का निर्माण अपने आप में अनूठा है. रिसर्च और सर्वे के बाद जो भी चीजें सामने आती गईं उसी हिसाब से मंदिर बनाने के तरीके में भी बदलाव किया जाता रहा. मंदिर के लिए पत्थर तराशने का काम तो 90 के दशक से ही चल रहा है लेकिन जब निर्माण शुरू हुआ तो इसमें साइंटिफिक पहलू भी शामिल किए गए.nराम मंदिर में लगने वाले हजारों पत्थर अपने आप में एक भूल-भुलैया है. जिसे सुलझाने के लिए राम मंदिर का पूरा नक्शा कंप्यूटरों में दर्ज किया गया है. यानी राम मंदिर में लगने वाले सभी पत्थरों की ट्रैकिंग होती है. बारकोड्स की मदद से पत्थरों की लोकेशन का ब्योरा तैयार रहता है. कौन सा पत्थर मंदिर के किस हिस्से में और किस समय लगेगा ये सबकुछ कंप्यूटर की मदद से तय किया जाता है.nराम मंदिर अपने तरीके का पहला ऐसा निर्माण है जिसके लिए बरसों से तैयारी होती रही और अब भव्य स्वरूप में ये तैयार हो रहा है. मंदिर का मॉडल हो या बनाने का तरीका सबकुछ जांचने और परखने के बाद ही धरातल पर उतारा गया. कई ऐसे फैसले भी लिए गए जो निर्माण कार्यों में सनातन पद्धति का हिस्सा रही हैं. ज्यादातर इमारतों में लोहे का सरिया इस्तेमाल किया जाता है. इसका जीवनकाल करीब 94 साल माना जाता है. जबकि इस मंदिर को उससे 10 गुने ज्यादा समय तक टिकने के लिए बनाया जा रहा है. इसलिए मंदिर के निर्माण में लोहे का इस्तेमाल नहीं करने का फैसला किया गया है. कुल मिलाकर श्रीराम मंदिर के लिए ऐसी हर तकनीक का सहारा लिया गया है जो इसे अदभुत और अद्वितीय बनाएगी.nदेशभर में कई मंदिर सदियों पुराने हैं और आज भी वो मजबूती से खड़े हैं. राम मंदिर निर्माण में भी यही प्रेरणा ली गई और उसी आधार पर काम शुरू हुआ. राम मंदिर के पहले फेज का निर्माण कार्य आखिरी दौर में है. दिसंबर के आखिर तक ये काम पूरा भी हो जाएगा. जिसके बाद गर्भगृह में रामलला विराजमान होंगे. पहले दिन से ही हर काम बेहद बारीकी से और जांच परख कर किया जा रहा है.
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राम मंदिर में ना लोहा लगा-ना सिमेंट, जानें कितने साल रहेगी मजबूती?
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